लोगो से , लोगो के लिए , लोगो के द्वारा चलती लोकशाही में
लोगो को , मतो के लिए , मत लेने हेतु दिये गए चुनावी वादों का एफिडेविट लेना चाहिए।
आज कल चुनावी माहौल में कुछ भी प्रचार किया जाता है।
जनता के लिए गलत प्रचार वो धोखा ही हे और चुनाव आयोग के लिए यह लालच होना चाहिए। हर पक्ष को भी प्रचार की योजना के पैसे कहा से लाए वो भी बताना चाहिए। सभी पक्षों को चुनावी वादो का एफिडेविट देना चाहिए क्योंकि बाद में वो जुमला ना हो जाए। कोई भी पक्ष के दावे ऐसे नही होने चाहिए जिससे देश पर कर्ज बढे। अगर ज्यादा दावे या वचन जूठे निकले तो उस पक्ष को अगले चुनाव से बहिस्कृत करना चाहिए। चुनाव आयोग को इस विषय पे बहुत गहराई से सोचना होगा।
नमस्कार दर्शक मित्रो,
आज कल हमारे देश की लोकशाही याने के लोगो से , लोगो के लिए , लोगो से चलती लोकशाही में कई बदलाव दिख रहे है और ज्यादा दौर पर वो बदलाव राजकरण में ही दिखते है। उसमे सबसे बड़ा बदलाव अगर कोई हे तो वो हे चुनावी प्रचार के दावों या वादो का?! यह जीतना सुविधा कारक हे उतना ही देश के लिए खतरनाक भी है क्योंकि इसमें कही न कही लोकशाही का हनन होता है और लालच ज्यादा रहती है। लेकिन लोकशाही के मूल आधार चुनाव और चुनाव आयोग का यह मूल मंत्र हे की मतदान कोई भी डर, लालच या लालसा के लिए नही होना चाहिए। वो मंत्र यहाँ पे बिखर जाता है।।
दर असल। पिछले कुछ सालो में नेताओं के भाषण में कुछ भी निकल के आता हे वो कोई भी दावे , वचन या योजना चुनावी प्रचार के दौरान बिना कुछ सोचे समझे , कुछ भी केल्क्युलेशन किए बिना बोल देते है और रैली में लोगो की तालिया और कही लोगो के मत बटोर लेते है। बादमे सता में आते ही उसे ज्ञान आ जाता है और वो बोला हुवा वचन या दावा पूरा न होने का कारण समझाने लगते हैं।
जो की सरासर धोखा धडी ही है।
अभी अभी आईएमएफ की रिपोर्ट के अनुसार भी देश पर बढ़ता हूवा बोझ को संज्ञान में लेके चेतावनी मिली हे लेकिन वहा पर भी कोई सहमत नही हो रहा है और किसी भी तरह के यह चुनावी योजनाएं अगर देश पर कर्ज बढ़ा रही हे तो उसे तुरंत असर से बंध कर देना चाहिए।
वैसे भी कोई भी खर्च हो चुनाव का , या योजनाओं का वो घूम फिर के जनता के ऊपर ही टैक्स के रूप में आता हे। और अगर कर्ज भरने की बात करे तो वो भी घूम फिर के जनता के ऊपर ही आएगा। वैसे देखा जाए तो सभी राज्यों में चुनाव आते ही जीवन जरूरी चीज के भाव पर भी जहा तहा की सरकार कंट्रोल करने की कोशिश में रहती हे या तो उसमे राहत की बाते करती है या चुनाव के बाद वहा राहत भी मिलती है तो इसमें भी लोकशाही के मूल आधार समान हक का हनन होता है। जैसे की जीवन जरूरी वस्तु ए बिजली , पानी , सड़क और शिक्षा सभी राज्यों में अलग अलग दाम और दंड भेद से मिलता है । तो यह चुनावी वादों का असर रहता है।
सभी पक्ष और नेताओं को अगर देश की कोई भी कदर हो तो उसे ही ऐसे वादे नही करने चाहिए जो देश हित के विरुद्ध हो और कर्ज बढ़ाके देश का नुकसान करते हो। पिछले कुछ समय से ये वादों की लिस्ट देखो तो सब्जी मार्केट जैसा हो गया है जहा जाओ वहा कुछ न कुछ डिस्काउंट या फ्री भले ही हमे उसके लिए देश या संपति बेचनी पड़े तो इस पर रोक लगनी जरूरी हे।
लेकिन दोस्तो हम तो लोकशाही में जीते हे तो नेताओं को भी छूट मिलती हे बोलने की लेकिन उसके ऊपर जाके चुनाव आयोग को यह सब चीज बारीकी से देखनी चाहिए और ऐसे किए गए मौखिक वादों का चुनाव से पहले ही एफिडेबीट ले के उस पक्ष और नेता को कानूनी दायरे में ले लेने चाहिए जिससे यह सब्जी मार्केट जैसी वादों की प्रक्रिया बंध हो और सही सही चुनाव का प्रचार प्रसार हो जो आजादी के वक्त हमारे शहीदवीरो ने देखा था। अगर इसका एफीडेबीट चालू करदे तो आम नागरिक भी नेता या पक्ष के विरूद्ध उस आधार पे कानूनी कारवाई कर सकता है और उसकी सजा उस पक्ष को 5 साल और नेता को आजीवन बैन करके भी हो सकती है।
अंत त सत्य तो यह हे की हमारे भारत में ज्यादातर लोगो कि जरूरत बहुत अलग अलग होती है लेकिन जो मतदाता हे उनमें से कई लोगो की जरूरत सीमित हे और यह नबस यह नेता लोग पकड़ लेते हे और जनता सार दर साल मूर्ख बनती रहती हे। तो इस प्रकार के राजनीति प्रचार को रोक कर सही में एक तंदुरस्त चुनाव हो एसी अपेक्षा।।। अस्तु।
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