लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है,उछल रहा है जमाने में नाम-ए-आजादी,
मार्च का यह दिन भारतीय इतिहास में हमेशा के लिए अमर रहेगा,क्योंकि इस दिन शहीदों ने अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतंत्रता की राह पर भारत को एक कदम और आगे बढ़ाया था,
भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव न केवल अपने समय के महान क्रांतिकारी थे,बल्कि आज भी भारत के युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत बने हुए हैं,इन तीनों की साहसिकता और देशभक्ति को हम कभी भी भूल नहीं सकते,
बताते चलें कि भगत सिंह मात्र 8 साल की उम्र में ही भारत की आजादी के बारे में सोचने लगे थे, और 15 साल की उम्र में उन्होंने अपने घर को छोड़ दिया था,क्योंकि उनका दिल भारत के लिए धड़कता था।
सुखदेव ने भारत मां की आजादी के साथ 1929 में जेल में बंद भारतीय कैदियों के साथ हो रहे अपमान और अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में आवाज उठायी थी,
बचपन से ही राजगुरु के अंदर जंग-ए-आजादी में शामिल होने की ललक थी,वाराणसी में विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु का सम्पर्क अनेक क्रान्तिकारियों से हुआ,चन्द्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से तत्काल जुड़ गए,उस वक्त उनकी उम्र मात्र 16 साल थी,
भगत सिंह जी ने चंद्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के वक्त जलती हुई मोमबत्ती पर हाथ रखकर कसम खाई थी कि उनकी जिंदगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूर्ण करके दिखाई,उनके त्याग को भुलाए भी नहीं भुलाया जा सकता,आज ही के दिन महज 23 साल की उम्र में,23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में उनके दो साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ उन्हें फांसी दे दी गई थी,13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था,8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने अपने साथी क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार की असेंबली में बम विस्फोट कर दिया था,जिसे धमाका करने के उद्देश्य से खाली स्थान में फेंका गया था,ताकि किसी को हानि नहीं हो,विस्फोट करने का उद्देश्य किसी को हानि या चोट पहुंचाना नहीं था बल्कि अंग्रेज सरकार को जगाना था, भगत सिंह एवं उनके साथी चाहते तो वहां से भाग जाते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, अंग्रेजों के द्वारा उन्हें और उनके साथियों को जेल में कई प्रकार की यातनाएं दी गई,जिसमें मुख्य रूप से 12 घंटे पहले फांसी देने का फैसला लेना,उनकी आखिरी इच्छा पूरी न होने देना,और किताबों से वंचित करना शामिल है,भगत सिंह अपने आखिरी दिनों में लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे,जिसे वह पूरी नहीं कर पाए,फांसी की खबर सुनने के बाद भी उन्होंने माफी नामा लिखने से इनकार कर दिया,उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारत की जनता और भी जागरूक हो जाएगी,यह पंक्तियां वह अक्सर गुनगुनाया करते थे-
उन्हें यह फिक्र है हरदम,नयी तर्ज- ए-जफा क्या है?
हमें यह शौक है देखें,सितम की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफा रहे,चर्ख का क्या गिला करें,
सारा जहां अदू सही,आओ! मुकाबला करें,
शहीदों के परम बलिदान से क्रांति की ऐसी अलख जगी जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की जडे हिल गई,युवाओं के लिए वह उच्च कोटि के आदर्श हैं,सही मायने में उनका साहस और बलिदान हमें आज भी मातृभूमि की सेवा और मां भारती के चरणों में समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है,भगतसिंह के मन के विचारों की झलक उनके द्वारा लिखे गए "जेल नोटबुक"में स्पष्ट मिलती है जिसमें उन्होंने लिखा है- *"मैं एक मनुष्य हूं और जो कुछ भी संपूर्ण मानवता को प्रभावित करता है उसकी मुझे चिंता है"*
आज हमें यह समझने की जरूरत है कि इन शहीदों ने हमें जो स्वतंत्रता दी है,वह बहुत कीमती है,हमें इस स्वतंत्रता को सहेज कर रखना है और इसके महत्व को समझते हुए अपने देश की सेवा में अपना योगदान देना है,क्योंकि-
सब गुड्डे गुड़िया खेलते थे, उनको आजादी प्यारी थी,
उनके दिल में इंकलाब की दबी हुई चिंगारी थी,
23 मार्च के दिन यह भूमंडल भी डोल उठा,
जेल का हर इक कोना,रंग दे बसंती बोल उठा,
जब-जब एक शायर आजादी के अफसाने गाएगा,
सुखदेव,भगत और गुरु तुम्हारा नाम आएगा,
आइए, हम सभी मिलकर इस शहीद दिवस पर संकल्प लें कि हम अपने देश की सेवा में अपना योगदान देंगे और अपने शहीदों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देंगे,उनके आदर्शों को अपनाकर हम अपने राष्ट्र को एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र बनाएंगे
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा,
जयहिंद,वंदेमातरम
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श्रीमती माया बैरागी शिक्षिका,लेखिका एवं रचनाकार रतलाम,मध्यप्रदेश |
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